Saturday, June 25, 2011

मेरी मम्मी - नजर उसकी



जीवन में कई बार मुझे शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा है. कभी दोस्तों के कारण और कभी अपनों के कारण. अपनी गलती चुकि किसी को दिखती नहीं इसलिए मुझे भी नहीं दिखी. मगर शर्मिंदगी भीतर ही भीतर आहत तो कर ही जाती है. मैं भी हुआ...

थोड़ा बैकग्राउंड में जाना ठीक होगा. मेरी मम्मी ने अकेले ही हम चार भईयों और बहन को पढ़ा लिखा कर बड़ा किया. स्कूल से फीडबैक लेना और हमें प्रेरित करना कि अगर हम कुछ नहीं कर सके तो लोग क्या कहेगे. पापा इलाहाबाद में पोस्टेड थे और घर की सब जिम्मेदारी मम्मी पर. उस मम्मी पर जो अनपढ़ थी. किसी को कुछ कहने का मौक़ा नहीं मिलना चाहिए. इस बात से सशंकित रहती थी. ऐसे में उनके बेटे को शर्मिंदगी उठाना पड़े असह्य था उनके लिए. मेरे साथ जो कुछ हुआ उनमे से कुछ उन्हें बताया कुछ कहने की हिम्मत ना हुई...
ऐसी ही एक घटना के बाद मैंने लिखा था इन पंक्तियों को...

मन में थी चाहत लिखूं कुछ तुम पर भी पर क्या करूँ,
हाथ देते साथ छोड़ ठीक वैसे जैसे छोड़ा था
कभी तुमने मुझे उस मोड पर.
कोई रस्ता था नहीं मेरे पीछे लौटने का.
और लौटता भी क्यूँ?
लौटते हैं वो इरादे जिनके होते मिट्टियों के.
मिट्टी होता गला भी जाता, बह भी जाता
या नया कोई रूप धरता.
मैं तो था फौलाद जो गला,
बहा ना नया कोई रूप धरा.
मैं तपा, तपता गया वक्त ने जितना तपाया
तब कहीं यह रूप पाया...और आज
लोग मेरा साथ चाहें, जो करूं बनती खबर है
चाहता ये भी नहीं मैं पर छवि ऐसी बनी कि
मेरा ही अधिकार मुझपर खत्म है, मैं क्या करू?   
शुरू प्रतिशोध से हुई कहानी खत्म बुरे से होती है.
मैंने भी चाहा था ऐसा ही कुछ कर जाना
पर सोचा, जिसने मुझे यूं ठुकराया,
सब की नजरों में गिराया
क्या वही है एक पैमाना तय करने मै कैसा हूं ?
तभी एक बिजली सी कौंधी
माँ का चेहरा सामने आया...
मैं तो उसकी आंख का तारा
हुआ ना मुझ सा कोई ना होगा
ऐसा उसका मानना था,
फिर शर्मिंदा क्यों भला मैं?
माँ को पहले कोई ये विश्वास दिलाए, मैं नकारा
तब मानूगा सच कहा तुमने जो.
कर नमन माँ को मैंने अपनी राह बनाई.
औरों की नज़रों से बेहतर
माँ की नज़रों में उठ जाऊ
उसका सपना पूरा करना
मैंने अपना लक्ष्य बनाया.
आज लालायित जगत है
साथ पाने को मेरा.
चाहे कोई कुछ कहे पर आँक खुद को
सिर्फ उसकी ही नजर से,
उठ गया नज़रों में उसकी
देवता बन जाएगा,
फेर लीं उसने जो नजरें
ख़ाक में मिल जाएगा.  

Sunday, June 19, 2011

मेरे पापा जी!!


अपनी पहली पोस्ट फादर्स डे पर लिखना महज संयोग है. सब कुछ जीवन में योजनानुसार हो ज़रूरी नहीं और असम्भव भी नहीं. मेरे साथ पहली बात हुई. पापाजी ने चाहा मैं डॉक्टर बनू पर मैं नहीं बना. मगर उनके आख़िरी दस दिनों में उन्हें डॉक्टर के पास लाने-पहुंचाने का काम ज़रूर मैंने किया.   27 जुलाई 1999 को उनका साथ छूटा. उन्हें खून की कमी हो गयी थी और ब्लड ट्रांस्फ्युज़न हो रहा था. दो दिन सब ठीक था, पर आख़िरी दिन सब गड़बड़ हो रहा था. फिर भी खून चढना शुरू हो गया. मैं टेलीफोन एक्सचेंज चला गया पर जल्दी ही वापस लौट आया.
आते ही नर्सिंग होम की सीढ़ी पर मून (मेरा छोटा भाई) मिला और बताया कि अचानक पापाजी की तबियत बिगड़ रही है. उनके कमरे में पहुंचा तो उन्होंने मुझे बेड पर अपने बगल में बैठने का इशारा किया. मैं बैठ गया. सचमुच उनकी तबीयत बहुत तेज़ी से बिगड रही थी. पास बैठते ही उन्होंने सिर्फ इतना कहा अब तुम मेरे पास हो तो मुझे कुछ नहीं होगा. लेकिन मेरे जन्म के समय की गयी पंडित की भविष्यवाणी कि जातक अपने पिता के लिए शुभ है गलत सिद्ध होने जा रही थी. वैसे भी मौत को कौन टाल सका है, जो मैं टाल पाता...
उनकी किसी उम्मीद को मैं पूरा कर पाया या नहीं कहना मुश्किल है पर ऐसा लगा उनकी आख़िरी इच्छा भी पूरी नहीं कर सका. आज भी रोज उनकी चर्चा हो ही जाती है. उनसे सिनेमा, साहित्य और अच्छे विचार की विरासत हमें काफी समृद्ध कर रही है. मम्मी के साथ जब हम सभी भाई बहन बैठे हों और छत पर कोई कौआ बैठे तो बरबस मुंह से निकल जाता है,”उड़ तो कौआ पापा कि चिट्ठी आएगी.” पापाजी की पोस्टिंग इलाहाबाद में थी और तब चिट्ठी आती भी थी...मगर जहाँ वो अब हैं वहाँ से तो बस वन वे है और वे सिर्फ आशीर्वाद का सिग्नल देते हैं (वे रेलवे में थे) जिसकी वजह से “गायत्री” (मेरे मकान का नाम) में रहने वाले फलफूल रहे हैं!