Tuesday, November 13, 2012

खोटे सिक्के


'फर्क है, सिक्का दोनों ओर से खोटा होता है.’
फिल्म शोले में ठाकुर ने जेलर से तब कहा जब जय और वीरू को उसने खोटा सिक्का और किसी काम के नहीं’ बता कर ख़ारिज कर दिया था. ये संवाद मशहूर लेखक सलीम-जावेद की जोड़ी की कलम की धार तो दिखलाती है पर जो नहीं जानते उन्हें जानकर आश्चर्य होगा कि शम्मी कपूर की हिट फिल्म ‘प्रोफेसर’ और ‘तीसरी मंजिल’ में उनके दोस्त की अननोटिस रहने वाली भूमिका में सलीम ही थे. अभिनेता के तौर पर सदा खोटे सिक्के की तरह याद किये जाने वाले व्यक्ति. बिलकुल सलीम की तरह की नाकामी देखी सुभाष घई ने. जिनका अभिनय करियर शुरू हुआ और समाप्त हो गया फिल्म उद्योग के ‘हैली कॉमेट’ राजेश खन्ना की ‘आराधना’ के साथ. इनसे कुछ ही भिन्न स्थिति राकेश रोशन के साथ रही. कई फ्लॉप फिल्मों  के हीरो रहे राकेश रोशन ने भी अपना धैर्य खोया. मगर इन खोटे सिक्कों में जान थी इसलिए फर्नेस में गलने के बदले खुद को दूसरे क्षेत्रों में आजमाया. आजमाया  क्या, आज इन्हें फिल्म उद्योग में सफलता को मापने की ‘यूनिट’ कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.
यहाँ बिग बी की असफलता को याद करने की जरुरत नहीं क्योंकि वो ऐसे ब्लू चिप कंपनी के शेयर थे जो पारिवारिक विवाद, बंटवारे या ग्लोबल रिसेशन के कारण कुछ दिनों के लिए बाजार भाव से कम पर उपलब्ध हुए. उन्हें उस दौर में कम आंकने वालों के ध्यान से ये बात उतर गयी थी की हीरा खेतों में नहीं कोयले की खानों में ही मिलता है और मिला भी. इतना मिला कि आँखें अभी तक चुँधिया रहीं हैं.
खैर, दीपावली पर बातें हों तो समृद्धि की हो, सफलता की हो. अनार, आसमान तारा या आवाज़ वाले पटाखों से खुश होते समय अगरबत्ती को भी याद रखना होगा क्योंकि अनार एक बार चमक कर जल्द ही बुझ जाएगा, आसमान-तारा जितना तेज ऊपर जाए उतनी तेज़ी से नीचे आएगा पृथ्वी के ‘ग्रविटेशनल पुल’ के कारण और दूसरे चीखने वाले पटाखे भी जल्द चुप हो जायेंगे. मतलब, ये हमें टिकाऊ खुशियाँ भी नहीं देंगे और प्रदूषण अलग से. जबकि नॉन ग्लैमरस, मन ही मन, धीमे-धीमे सुलगती अगरबत्ती से हम देवी-देवताओं और स्वर्गवासी सम्बन्धियों की वंदना तो करेंगे ही और यह  बुझने के बाद भी खुशबू और खुशियाँ बिखेरती रहेगी.
आज दीपावली के दिन भी कई खोटे सिक्के मन ही मन उदास होंगे. लक्ष्मी की पूजा करेंगे पर जेब खाली होगी. पटाखे फूटेंगे पर दिल, सीलन भरे पटाखे की तरह दहाड़ेगा नहीं. दुखी होने की जरूरत नहीं है उन्हें. अगली पारी आज से शुरू करने का संकल्प लें और याद रखें- किस्मत की मुहूर्त ट्रेडिंग का कोई निश्चित दिन नहीं होता.               
      




Thursday, July 14, 2011

हर किसी को नहीं मिलता...

मैं तब सातवीं में पढ़ता था . एक दिन अंग्रेज़ी के टीचर को मुझ पर इतना गुस्सा आया की उन्होंने आव देखा न ताव लगे अपने प्रिय हथियार से मेरी धुनाई करने . उनका प्रिय हथियार न तो छड़ी थी ना लात घूँसा . जानते हैं उनका हथियार क्या था? उनका हथियार था- बेल्ट . पीठ से पैर तक लगभग सौ निशान . लंच में अपने भैया को दिखाया और घर पर मम्मी को बताया . मम्मी ने सबसे पहले कारण पूछा . कारण कुछ होता तो बताता . उसके बाद मम्मी ने उनकी क्लास ली . आज का समय होता तो हफ़्तों न्यूज में छाया रहता . गुरुदेव का क्या होता वह तो राम जाने . मैं पढने में कमजोर था मगर अनुशासित बच्चा था . अनमने ढंग से पढ़नेवाला बच्चा बिलकुल ही अनमना हो गया पढाई के प्रति . मगर गणित में क्रॉस के साथ हर बार पास होता गया . लेकिन इस तरह मैट्रिक पास होना असंभव था .


पापाजी ने मुझे गणित में पास होने लायक बनाने की जिम्मेवारी भैया को सौंपी . सिर्फ गणित में इसलिए की बाकी विषयों में मैं खुद पास हो जाता था और नम्बर भी अच्छे आते थे . भैया पढाई में स्कूल के बेहतरीन छात्रों में से एक थे . वे समझ गए की ज्योमेट्री और ट्रीग्नोमेट्री मेरे बस की बात नहीं . अलजेब्रा और अंकगणित के पचास नम्बर के सवाल पर कमान्ड करवा कर उन्होंने मुझे इम्तिहान देने भेजा और मैं पैतालीस नंबर लेकर सेकंड डिवीजन में मैट्रिक पास कर गया . सबके चेहरे पर खुशी की लहर तब दूनी हो गयी जब ड्रीम यूनिवर्सिटी पटना विश्वविद्यालय के कालेज में मेरा दाखिला हो गया . लेकिन गुरु और गोविन्द को सामने पाकर असमंजस वाली स्थिति अब तक मेरे लिए नहीं होने पायी थी .

परिवार में मैं भैया के ‘साया’ के तौर पर जाना जाता था. मैं उसका सारथी भी था, श्रोता भी था और पाठक भी था. हम प्रायः साथ देखे जाते थे. भैया को कालेज छोड़ना और लाना. नौकरी लगी तो ऑफिस पहुंचाना-लाना मेरा ही काम था . भैया के दोस्त मुझसे भी मिलने आया करते थे जब भैया की पोस्टिंग बाहर हो गयी थी. रिश्तेदार कहते अपने भाई का चपरासी बनेगाकोई कहता कभी घने बरगद के पेड़ के नीचे कोई छोटा पेड़ नहीं पनप सकता. लेकिन भैया ने कभी मुझे खुद से अलग नहीं कियाउसके साथ ने मुझे सिनेमा, साहित्य, संगीत और साइंस के विषय में बहुत कुछ सीखने का मौक़ा दिया. एक दिन जब मेरी लिखी कविता अखबार में छपी तो सभी चकित रह गये. मैं भी और भैया भी. भैया ने कहा जो मैं ना कर सका तुमने कर दिया. जबकि भैया ने खुद रेडियो के लिए अनगिनत नाटक लिखे और उनमें अभिनय कर चुके थे. अब मैं लिखता और भैया करेक्शन करते और मैं छप भी जाता. मैंने कब सीखा ये सब मुझे नहीं पता. भैया ने कब सिखाया उसे नहीं पता. बिलकुल एकलव्य और गुरु द्रोण की कहानी रिपीट हो रही थी.

गुरु पूर्णिमा के अवसर पर पोस्ट डालने की सोच रहा था परन्तु किसी को गुरु माना हो तो उनकी वन्दना करता . दरसल एम . . तक पढ़ने के बावजूद मन किसी शिक्षक को उस श्रद्धा भाव से देखने को तैयार नहीं था . मगर अब इसमें संशोधन की आवश्यकता थी . गुरु सिर्फ वही नहीं जो स्कूल में शिक्षा देते हैं बल्कि गुरु कोई भी हो सकता है. भैया मेरे गुरु नहीं हैं क्योंकि द्रोणाचार्य ने अपने पुत्र अश्वत्थामा को पांडवों के सामान शिक्षा दी पर वे अपने पुत्र के गुरु के रूप में नहीं जाने जाते हैं . एकलव्य को शिक्षा नहीं दी पर उसके वे गुरु हैं . भैया बरगद का पेड़ हैं और उसके नीचे कोई और पेड़ नहीं पनप सकता ऐसा मानने वालों के आशीर्वाद की अपेक्षा के साथ बताना चाहता हूँ की बरगद के नीचे से भले कोई पौधा न पनपे मगर पनपेगा तो सिर्फ बरगद ही पनपेगा. हाँ, आप सिर्फ इतना करें की उसे न तो फटकारें, न कोसें और न ही हतोत्साहित करें क्योंकि हर किसी को ऐसे भाई कहाँ मिलते हैं?   

Saturday, June 25, 2011

मेरी मम्मी - नजर उसकी



जीवन में कई बार मुझे शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा है. कभी दोस्तों के कारण और कभी अपनों के कारण. अपनी गलती चुकि किसी को दिखती नहीं इसलिए मुझे भी नहीं दिखी. मगर शर्मिंदगी भीतर ही भीतर आहत तो कर ही जाती है. मैं भी हुआ...

थोड़ा बैकग्राउंड में जाना ठीक होगा. मेरी मम्मी ने अकेले ही हम चार भईयों और बहन को पढ़ा लिखा कर बड़ा किया. स्कूल से फीडबैक लेना और हमें प्रेरित करना कि अगर हम कुछ नहीं कर सके तो लोग क्या कहेगे. पापा इलाहाबाद में पोस्टेड थे और घर की सब जिम्मेदारी मम्मी पर. उस मम्मी पर जो अनपढ़ थी. किसी को कुछ कहने का मौक़ा नहीं मिलना चाहिए. इस बात से सशंकित रहती थी. ऐसे में उनके बेटे को शर्मिंदगी उठाना पड़े असह्य था उनके लिए. मेरे साथ जो कुछ हुआ उनमे से कुछ उन्हें बताया कुछ कहने की हिम्मत ना हुई...
ऐसी ही एक घटना के बाद मैंने लिखा था इन पंक्तियों को...

मन में थी चाहत लिखूं कुछ तुम पर भी पर क्या करूँ,
हाथ देते साथ छोड़ ठीक वैसे जैसे छोड़ा था
कभी तुमने मुझे उस मोड पर.
कोई रस्ता था नहीं मेरे पीछे लौटने का.
और लौटता भी क्यूँ?
लौटते हैं वो इरादे जिनके होते मिट्टियों के.
मिट्टी होता गला भी जाता, बह भी जाता
या नया कोई रूप धरता.
मैं तो था फौलाद जो गला,
बहा ना नया कोई रूप धरा.
मैं तपा, तपता गया वक्त ने जितना तपाया
तब कहीं यह रूप पाया...और आज
लोग मेरा साथ चाहें, जो करूं बनती खबर है
चाहता ये भी नहीं मैं पर छवि ऐसी बनी कि
मेरा ही अधिकार मुझपर खत्म है, मैं क्या करू?   
शुरू प्रतिशोध से हुई कहानी खत्म बुरे से होती है.
मैंने भी चाहा था ऐसा ही कुछ कर जाना
पर सोचा, जिसने मुझे यूं ठुकराया,
सब की नजरों में गिराया
क्या वही है एक पैमाना तय करने मै कैसा हूं ?
तभी एक बिजली सी कौंधी
माँ का चेहरा सामने आया...
मैं तो उसकी आंख का तारा
हुआ ना मुझ सा कोई ना होगा
ऐसा उसका मानना था,
फिर शर्मिंदा क्यों भला मैं?
माँ को पहले कोई ये विश्वास दिलाए, मैं नकारा
तब मानूगा सच कहा तुमने जो.
कर नमन माँ को मैंने अपनी राह बनाई.
औरों की नज़रों से बेहतर
माँ की नज़रों में उठ जाऊ
उसका सपना पूरा करना
मैंने अपना लक्ष्य बनाया.
आज लालायित जगत है
साथ पाने को मेरा.
चाहे कोई कुछ कहे पर आँक खुद को
सिर्फ उसकी ही नजर से,
उठ गया नज़रों में उसकी
देवता बन जाएगा,
फेर लीं उसने जो नजरें
ख़ाक में मिल जाएगा.  

Sunday, June 19, 2011

मेरे पापा जी!!


अपनी पहली पोस्ट फादर्स डे पर लिखना महज संयोग है. सब कुछ जीवन में योजनानुसार हो ज़रूरी नहीं और असम्भव भी नहीं. मेरे साथ पहली बात हुई. पापाजी ने चाहा मैं डॉक्टर बनू पर मैं नहीं बना. मगर उनके आख़िरी दस दिनों में उन्हें डॉक्टर के पास लाने-पहुंचाने का काम ज़रूर मैंने किया.   27 जुलाई 1999 को उनका साथ छूटा. उन्हें खून की कमी हो गयी थी और ब्लड ट्रांस्फ्युज़न हो रहा था. दो दिन सब ठीक था, पर आख़िरी दिन सब गड़बड़ हो रहा था. फिर भी खून चढना शुरू हो गया. मैं टेलीफोन एक्सचेंज चला गया पर जल्दी ही वापस लौट आया.
आते ही नर्सिंग होम की सीढ़ी पर मून (मेरा छोटा भाई) मिला और बताया कि अचानक पापाजी की तबियत बिगड़ रही है. उनके कमरे में पहुंचा तो उन्होंने मुझे बेड पर अपने बगल में बैठने का इशारा किया. मैं बैठ गया. सचमुच उनकी तबीयत बहुत तेज़ी से बिगड रही थी. पास बैठते ही उन्होंने सिर्फ इतना कहा अब तुम मेरे पास हो तो मुझे कुछ नहीं होगा. लेकिन मेरे जन्म के समय की गयी पंडित की भविष्यवाणी कि जातक अपने पिता के लिए शुभ है गलत सिद्ध होने जा रही थी. वैसे भी मौत को कौन टाल सका है, जो मैं टाल पाता...
उनकी किसी उम्मीद को मैं पूरा कर पाया या नहीं कहना मुश्किल है पर ऐसा लगा उनकी आख़िरी इच्छा भी पूरी नहीं कर सका. आज भी रोज उनकी चर्चा हो ही जाती है. उनसे सिनेमा, साहित्य और अच्छे विचार की विरासत हमें काफी समृद्ध कर रही है. मम्मी के साथ जब हम सभी भाई बहन बैठे हों और छत पर कोई कौआ बैठे तो बरबस मुंह से निकल जाता है,”उड़ तो कौआ पापा कि चिट्ठी आएगी.” पापाजी की पोस्टिंग इलाहाबाद में थी और तब चिट्ठी आती भी थी...मगर जहाँ वो अब हैं वहाँ से तो बस वन वे है और वे सिर्फ आशीर्वाद का सिग्नल देते हैं (वे रेलवे में थे) जिसकी वजह से “गायत्री” (मेरे मकान का नाम) में रहने वाले फलफूल रहे हैं!