Sunday, June 19, 2011

मेरे पापा जी!!


अपनी पहली पोस्ट फादर्स डे पर लिखना महज संयोग है. सब कुछ जीवन में योजनानुसार हो ज़रूरी नहीं और असम्भव भी नहीं. मेरे साथ पहली बात हुई. पापाजी ने चाहा मैं डॉक्टर बनू पर मैं नहीं बना. मगर उनके आख़िरी दस दिनों में उन्हें डॉक्टर के पास लाने-पहुंचाने का काम ज़रूर मैंने किया.   27 जुलाई 1999 को उनका साथ छूटा. उन्हें खून की कमी हो गयी थी और ब्लड ट्रांस्फ्युज़न हो रहा था. दो दिन सब ठीक था, पर आख़िरी दिन सब गड़बड़ हो रहा था. फिर भी खून चढना शुरू हो गया. मैं टेलीफोन एक्सचेंज चला गया पर जल्दी ही वापस लौट आया.
आते ही नर्सिंग होम की सीढ़ी पर मून (मेरा छोटा भाई) मिला और बताया कि अचानक पापाजी की तबियत बिगड़ रही है. उनके कमरे में पहुंचा तो उन्होंने मुझे बेड पर अपने बगल में बैठने का इशारा किया. मैं बैठ गया. सचमुच उनकी तबीयत बहुत तेज़ी से बिगड रही थी. पास बैठते ही उन्होंने सिर्फ इतना कहा अब तुम मेरे पास हो तो मुझे कुछ नहीं होगा. लेकिन मेरे जन्म के समय की गयी पंडित की भविष्यवाणी कि जातक अपने पिता के लिए शुभ है गलत सिद्ध होने जा रही थी. वैसे भी मौत को कौन टाल सका है, जो मैं टाल पाता...
उनकी किसी उम्मीद को मैं पूरा कर पाया या नहीं कहना मुश्किल है पर ऐसा लगा उनकी आख़िरी इच्छा भी पूरी नहीं कर सका. आज भी रोज उनकी चर्चा हो ही जाती है. उनसे सिनेमा, साहित्य और अच्छे विचार की विरासत हमें काफी समृद्ध कर रही है. मम्मी के साथ जब हम सभी भाई बहन बैठे हों और छत पर कोई कौआ बैठे तो बरबस मुंह से निकल जाता है,”उड़ तो कौआ पापा कि चिट्ठी आएगी.” पापाजी की पोस्टिंग इलाहाबाद में थी और तब चिट्ठी आती भी थी...मगर जहाँ वो अब हैं वहाँ से तो बस वन वे है और वे सिर्फ आशीर्वाद का सिग्नल देते हैं (वे रेलवे में थे) जिसकी वजह से “गायत्री” (मेरे मकान का नाम) में रहने वाले फलफूल रहे हैं! 

7 comments:

  1. स्पष्टत: यह बात आपके 'दिल से' निकली हुई लगती है...
    ...पापाजी तो अब भी हमारे साथ ही हैं...उनकी कमी आज तक कभी खली है भला? सुख-दुःख के क्षणों में भी साथ ही थे...नहीं?

    ReplyDelete
  2. किसी के जाने के बाद उसकी कमी का अहसास होता है. त्याग किसको कहते है ये हम सबने उन्ही से सिखा है..आज भी कभी कोई ट्रेन दिख जाये तो गार्ड वाले डब्बे पर ही नज़र होती है.उनको याद करने के लिए मे किसी दिन या डे का मुहताज नहीं हू.शायद बीफोर पहुचने कि आदत कि ही वजह से ही वे हमसब को झोड बीफोर चल दिए.ज्यादा नहीं लिख पयूंगा क्यों कि मुझे अपने आप को संभलना भी है यहाँ पर सबसे बड़ा जो हू इसलिए.
    मून

    ReplyDelete
  3. all the best for your blog.prepared myself for good post from you.
    charn sparsh
    moon

    ReplyDelete
  4. WONDERFUL......Tumhari pen se syahi nahi bhavnaye bahti hai jo sabko baha kar le jaati hai.....gr8.....well done

    ReplyDelete
  5. पापा जी के बारे में जो तुमने लिखा है उस घटना का सम्बन्ध मेरी बदनसीबी से भी है कि मैं उस वक्त उनसे काफी दूर था.. और शायद वो इसलिए कि तुमने जैसे परिवार की सारी जिम्मेदारियां संभाली थीं/हैं इसलिए उस सौभाग्य पर भी तुम्हारा ही हक था.. वो कॉन्फिडेंस मौत को हराने का पापा जी के अंदर सिर्फ तुम्हारे होने से ही आ सकता था... आज भी पटना जाते समय हम सभी भाई बहन बच्चे इलाहाबाद रेलवे स्टेशन को जागकर (रात २ बजे) भी ज़रूर देखते हैं. हमारे लिए वो स्टेशन, त्रिवेणी से भी पवित्र है.. ब्लॉग जगत में मुझे जानने वाले लगभग सभी यह जानते हैं की मैंने हमेशा यही कहा है कि जिस उम्र में बच्चे कोमिक्स पढते थे उस उम्र में पापा जी ने मुझे मंटो पढ़ने को दिया.. आज जो कुछ भी पढ़, लिख या समझ पाता हूँ साहित्य में, सिर्फ उनकी बदौलत!!
    मून की तरह मैं भी उनको याद करने के लिए किसी “डे” का इंतज़ार नहीं करता, क्योंकि वो तो “डे एंड नाईट” हमारे अंदर हैं!

    ReplyDelete
  6. आप सभी मेरे अभिन्न अंग हैं. हर अच्छी-बुरी बातों पर आपकी टिप्पणी मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है...

    ReplyDelete