जीवन में कई बार मुझे शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा है. कभी दोस्तों के कारण और कभी अपनों के कारण. अपनी गलती चुकि किसी को दिखती नहीं इसलिए मुझे भी नहीं दिखी. मगर शर्मिंदगी भीतर ही भीतर आहत तो कर ही जाती है. मैं भी हुआ...
थोड़ा बैकग्राउंड में जाना ठीक होगा. मेरी मम्मी ने अकेले ही हम चार भईयों और बहन को पढ़ा लिखा कर बड़ा किया. स्कूल से फीडबैक लेना और हमें प्रेरित करना कि अगर हम कुछ नहीं कर सके तो लोग क्या कहेगे. पापा इलाहाबाद में पोस्टेड थे और घर की सब जिम्मेदारी मम्मी पर. उस मम्मी पर जो अनपढ़ थी. किसी को कुछ कहने का मौक़ा नहीं मिलना चाहिए. इस बात से सशंकित रहती थी. ऐसे में उनके बेटे को शर्मिंदगी उठाना पड़े असह्य था उनके लिए. मेरे साथ जो कुछ हुआ उनमे से कुछ उन्हें बताया कुछ कहने की हिम्मत ना हुई...
ऐसी ही एक घटना के बाद मैंने लिखा था इन पंक्तियों को...
मन में थी चाहत लिखूं कुछ तुम पर भी पर क्या करूँ,
हाथ देते साथ छोड़ ठीक वैसे जैसे छोड़ा था
कभी तुमने मुझे उस मोड पर.
कोई रस्ता था नहीं मेरे पीछे लौटने का.
और लौटता भी क्यूँ?
लौटते हैं वो इरादे जिनके होते मिट्टियों के.
मिट्टी होता गला भी जाता, बह भी जाता
या नया कोई रूप धरता.
मैं तो था फौलाद जो गला,
बहा ना नया कोई रूप धरा.
मैं तपा, तपता गया वक्त ने जितना तपाया
तब कहीं यह रूप पाया...और आज
लोग मेरा साथ चाहें, जो करूं बनती खबर है
चाहता ये भी नहीं मैं पर छवि ऐसी बनी कि
मेरा ही अधिकार मुझपर खत्म है, मैं क्या करू?
शुरू प्रतिशोध से हुई कहानी खत्म बुरे से होती है.
मैंने भी चाहा था ऐसा ही कुछ कर जाना
पर सोचा, जिसने मुझे यूं ठुकराया,
सब की नजरों में गिराया
क्या वही है एक पैमाना तय करने मै कैसा हूं ?
तभी एक बिजली सी कौंधी
माँ का चेहरा सामने आया...
मैं तो उसकी आंख का तारा
हुआ ना मुझ सा कोई ना होगा
ऐसा उसका मानना था,
फिर शर्मिंदा क्यों भला मैं?
माँ को पहले कोई ये विश्वास दिलाए, मैं नकारा
तब मानूगा सच कहा तुमने जो.
कर नमन माँ को मैंने अपनी राह बनाई.
औरों की नज़रों से बेहतर
माँ की नज़रों में उठ जाऊ
उसका सपना पूरा करना
मैंने अपना लक्ष्य बनाया.
आज लालायित जगत है
साथ पाने को मेरा.
चाहे कोई कुछ कहे पर आँक खुद को
सिर्फ उसकी ही नजर से,
उठ गया नज़रों में उसकी
देवता बन जाएगा,
फेर लीं उसने जो नजरें
ख़ाक में मिल जाएगा.